Monday, May 22, 2006

क्या पा लिया मरकर उन्होने?

क्या पा लिया मरकर उन्होने?
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अभी तक मै बचता रहा आरक्षण पर लिखने से, पर भला पलायन भी किसी मर्ज की दवा है? क्यों भागता रहा इससे? कारण है कि इसका जिक्र आते ही याद आतें हैं कुछ वो मासूम जलते हुए चेहरे कुछ उन दोस्तों के जो कुछ ज्यादा ही भावुक थे। जो होनहार थे, पर ये न समझ सके कि भला आत्मदाह भी किसी समस्या का समाधान है। जिन्होने देखे होंगे हजारों सपने, मेरी तरह, या किसी भी साधारण छात्र की तरह, आसमान छूने के, पर भावुकता की एक आंधी ने उन स्वप्नीली आँखों को ही जला कर खाक कर दिया। जिन्होने सोचा था कि उनका बलिदान कुछ रंग लायेगा, कुछ होगा, जूँ रेंगेगी किसी के सर पर। वो कुछ दोस्त, जो बहुत ही अजीज थे मेरे। आँखों के लाल थे किसी मॉ के। किसी के घर का चिराग थे। उनकी रगों में भी बहता वो दूध था, जिनकी मुसकानें मासूम थीं। आज सोचता हूँ क्या पाया उन्होने? और किसको दोष दूँ मै? स्वार्थी राजनेताओं को? उन आरक्षण विरोधी छात्र नेताओं को, जिन्होने आत्मदाह करने का गलत उदाहरण पेश किया था, एक ऐसे देश में जहॉ इन्सानी जान की कीमत कुछ भी नही। क्या पा लिया मरकर उन्होने?

आरक्षण आज भी है, उल्टे बढ रहा है, ठीक राजनेताओं के भ्रष्टाचार और पदलोलुपता की तरह। वोट बैंक हमेशा रहेंगे। वर्ग संघर्ष भी हमेशा चलता रहेगा। राजनेता आते जाते रहेंगे। मुखौटे बदलते रहेंगे। शायद जीवन भर मै कभी भूल न सकूँ मॉ की उन चीखों को, या पिता की उन उदास आखों को। मेरे दोस्त होनहार थे, बस एक ही कमी थी, बहुत ज्यादा भावुक थे। आदर्शवादी थे। कुछ कर गुजरना चाहते थे। कर भी गुजरे। पर रास्ते गलत थे। चीख चीख कर कोई मेरे मन में पूछता है, क्या पा लिया मरकर उन्होने?

आखिर क्यों? दोस्तों रास्ते बहुत से हैं। जीवन अनमोल है, किसी का भी हो। सपने सबके बेशकीमती हैं। मॉयें सबकी बेहद वात्सल्यभरी हैं। सबके पिता चाहते हैं कि बेटा नाम रोशन करे, तरक्की करे, उन्नति करे, आसमान चूमे। मुझे हिसाब चाहिये, मेरे उन दोस्तों के प्राणों का, किससे मांगूँ? मुझे हिसाब चाहिये, उन जानों का जो हमने इस आरक्षण के कारण गवॉ दीं। मैने देखे हैं धनाढ्य नौकरीशुदा पिताओं के छात्रावासों में छात्रवृत्ति के बल पर मौज उडाते पुत्र, शराब पीते, सालोंसाल एक ही कक्षा में पडे रहने वाले वो अनसूचित जाति जनजाति के छात्रों को, जिन्हे दस दस साल में नकल कर कर के पास होने पर भी तुरंत नौकरियॉ मिलीं। याद आते हैं मेरे वो दोस्त जो आज भी भटक रहे हैं। मानता हूँ होते होंगे कुछ प्रतिभावान भी, पर कितने प्रतिशत? एक ही परिवार की तीन तीन पीढियों को देखा है आरक्षण के बल पर उच्च शिक्षा तथा नौकरियॉ पाते।
सवाल फिर आता है, मथता है मेरे मन को, क्या पा लिया मरकर उन्होने? क्या आपके पास इसका उत्तर है?

4 Comments:

Blogger Udan Tashtari said...

आत्मदाह तो विरोध प्रदर्शन का उचित माध्यम नही है.इन राजनेताओं और निती निर्धारकों को आपके जीने मरने से कोई फ़रक नही पडता.

समीर लाल

Tuesday, May 23, 2006 3:37:00 AM  
Blogger नितिन | Nitin Vyas said...

अच्छा लिखा है। आत्मदाह कोई समाधान नहीं है

Tuesday, May 23, 2006 4:32:00 AM  
Blogger Pratik Pandey said...

बिल्कुल सही कहा आपने, आत्मदाह इस समस्या का समाधान नहीं है। आपने भावनाओं को उद्वेलित करने वाला लेख लिखा है, जो सकारात्मक दिशा में सोचने पर मजबूर कर देता है।

Tuesday, May 23, 2006 8:48:00 AM  
Blogger ई-छाया said...

बडों से सुना था पढा था कहीं, जाते नही व्यर्थ कभी बलिदान।
क्या पाया मरकर जग भूला जिन्हे, होत समय बलवान।।
कल वीपी था आज अर्जुन, कल आयेगा कोई और महान।
ये तो हैं मुखौटे आते जाते रहेंगे, सत्ता में आकर सब समान।।
छोटी घटनायें एक दिन की हेडलाइनें, क्या है एकाधी जान।
वोटर वोटर जपते, लुभाते उसे ललचाते, वो तो है बस भगवान।।

Tuesday, May 23, 2006 3:53:00 PM  

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