भारतीय मीडिया
कभी कभी समाचार पढ या सुनकर कोफ्त होती है। कल दो समाचार पढे या सुने, पहला समाचार सुना था बी बी सी हिंदी पर, धनबाद (पहले बिहार अब शायद झारखंड राज्य में) जिले में १०० से अधिक मजदूर जिंदा दफन हो गये हैं। ये मजदूर एक बंद पडी कोयला खदान में अवैध कोयला खनन करने गये थे, जहां बाढ के कारण तीन नदियों का पानी घुस आया। बताया गया कि १३५ फुट गहरी खदान में १०० फुट पानी भर गया है और बचाव दल ४८ घंटों बाद भी नही पंहुच सका है। बेचारे गरीब ग्रामीण, जिनके नाते रिश्तेदार अंदर फंस गये हैं, दो दिनों से बाहर जाकर चुपचाप बैठे रहते हैं, चमत्कार के इंतजार में।
दूसरा समाचार था टाइम्स आफ इंडिया में हरियाणा में गढ्ढे में गिरने के बाद बचाये गये प्रिंस महाराज को बीस लाख रुपये से भी अधिक का अनुदान मिलने और उनकी जिंदगी बदल जाने का।
अब दोनों ही मामलों की तुलना करिये। पहला मामला क्योंकि हमारे नाटकबाज मीडिया की नजरों में नही आया, क्योंकि दूर दराज का मामला है कोई दिल्ली के बगल में स्थित हरियाणा का मामला तो है नही कि लगातार कवरेज दिखा कर और लोगों से हजारों एस एम एस करवा कर उनकी भावनाओं को उठाकर लाखों रुपये कमाये जा सकें, तो अब तक कुछ भी नही हुआ है। मीडिया को भी मालूम करने की गरज नही कि क्या हो रहा है। और मीडिया नही, जन भावनायें नही, तो राजनेता या सेना को क्या पडी है परेशान होने की?
जहां प्रिंस मामले में मीडिया जरूरत से ज्यादा सक्रिय था, वहां इस नये मामले में बेहद निष्क्रिय। कुछ दिनों पहले सुनील जी के चिठ्ठे में मैने इफ्तिखार गिलानी के बारे में पढा और मीडिया ट्रायल के बारे में पढा। भारत के मीडिया को यह पहचानना ही होगा कि विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र के चौथे पायदान के रूप में वह कितनी बडी जिम्मेदारी को निभा रहा है। सस्ती लोकप्रियता और जनभावनाओं को हर किसी ऐरे गैरे मामले में उभारने से ज्यादा जरूरी हैं देश में और भी कई सवाल।
सच और बिंदास बोलूं तो प्रिंस मामला ऐसा तो कतई नही था कि सेना प्रमुख और प्रधानमंत्री को उसके बारे में बयान देना पडे। दो दो मुख्यमंत्री या पूर्व मुख्यमंत्री वहां मौजूद हों। जिस देश में इंसान की जान की कोई कीमत नही और सडक दुर्घटनाओं और मामूली लूटपाट के लिये लोगों को रोजमर्रा ही मार डाला जाता हो वहां एक बच्चे को बचाने तक तो ठीक था, पर बचाकर लाखों रुपये का दान देना कहां तक उचित था, यह तो आप ही बताइये। क्या भारतीय मीडिया को मुद्दों का अकाल पड गया है? और सौ के आसपास गांव वालों के किसी खदान के अंदर फंस जाने की खबर क्या किसी को अपील नही करती? आखिर क्यों?
दूसरा समाचार था टाइम्स आफ इंडिया में हरियाणा में गढ्ढे में गिरने के बाद बचाये गये प्रिंस महाराज को बीस लाख रुपये से भी अधिक का अनुदान मिलने और उनकी जिंदगी बदल जाने का।
अब दोनों ही मामलों की तुलना करिये। पहला मामला क्योंकि हमारे नाटकबाज मीडिया की नजरों में नही आया, क्योंकि दूर दराज का मामला है कोई दिल्ली के बगल में स्थित हरियाणा का मामला तो है नही कि लगातार कवरेज दिखा कर और लोगों से हजारों एस एम एस करवा कर उनकी भावनाओं को उठाकर लाखों रुपये कमाये जा सकें, तो अब तक कुछ भी नही हुआ है। मीडिया को भी मालूम करने की गरज नही कि क्या हो रहा है। और मीडिया नही, जन भावनायें नही, तो राजनेता या सेना को क्या पडी है परेशान होने की?
जहां प्रिंस मामले में मीडिया जरूरत से ज्यादा सक्रिय था, वहां इस नये मामले में बेहद निष्क्रिय। कुछ दिनों पहले सुनील जी के चिठ्ठे में मैने इफ्तिखार गिलानी के बारे में पढा और मीडिया ट्रायल के बारे में पढा। भारत के मीडिया को यह पहचानना ही होगा कि विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र के चौथे पायदान के रूप में वह कितनी बडी जिम्मेदारी को निभा रहा है। सस्ती लोकप्रियता और जनभावनाओं को हर किसी ऐरे गैरे मामले में उभारने से ज्यादा जरूरी हैं देश में और भी कई सवाल।
सच और बिंदास बोलूं तो प्रिंस मामला ऐसा तो कतई नही था कि सेना प्रमुख और प्रधानमंत्री को उसके बारे में बयान देना पडे। दो दो मुख्यमंत्री या पूर्व मुख्यमंत्री वहां मौजूद हों। जिस देश में इंसान की जान की कोई कीमत नही और सडक दुर्घटनाओं और मामूली लूटपाट के लिये लोगों को रोजमर्रा ही मार डाला जाता हो वहां एक बच्चे को बचाने तक तो ठीक था, पर बचाकर लाखों रुपये का दान देना कहां तक उचित था, यह तो आप ही बताइये। क्या भारतीय मीडिया को मुद्दों का अकाल पड गया है? और सौ के आसपास गांव वालों के किसी खदान के अंदर फंस जाने की खबर क्या किसी को अपील नही करती? आखिर क्यों?
7 Comments:
मैं आपकी टिप्पणियों से पूर्णतया सहमत हूँ। भारतीय मीडिया आसानी से कवर की जा सकने वाली ख़बरों में सनसनी और सस्ती लोकप्रियता का तत्व ढूँढ़ता रहता है। शायद एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ख़बरों के चयन और उसे समुचित समय प्रदान करने के मामले में मीडियाकर्मी विवेक से काम नहीं लेते। 'दि हिन्दू' और बीबीसी जैसी परिपक्वता ज्यादातर समाचार चैनलों और समाचार पत्रों के पत्रकार नहीं दिखा पाते।
पढकर दूख हुआ।
मिडीया के बारे मे कुछ नही कहुंगा, बेवकुफो से भरी है !
मैं शत-प्रतिशत आपकी भावनाओं का समर्थन करता हूँ, और प्रिंस वाली घटना के समय भी मेरे मन में यही डर था। इस विचार पर सागर चंद नाहर जी के विचार जानने का उत्सुक हूँ जिन्होने उस समय किसी के भी इस तरह सोचने को भावनारहित करार दिया था।
इस मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने कितनी बेबाक बात की है.
बीबीसी से बातचीत में प्रभाष जी ने कहा-
"टीवी मीडिया के लोग पत्रकारिता की परिभाषा नहीं बदल सकते. हालाँकि ये लोग दावा करते हैं कि वे ख़बरों को देखने का नज़रिया बदल रहे हैं.
इनकी परेशानी ये है कि चौबीसो घंटे ऐसा क्या है जिसको ये दिखा सकें. इसलिए सबेरे से जो ख़बर इनके पकड़ में आती है, उसे रात तक वे ऐसे बेचते हैं जैसे सब्ज़ी बाज़ार में लोग अपनी सब्ज़ियाँ बेचते हैं.
लेकिन आज कर किसी कुंजड़े ने ये दावा नहीं किया कि वो सब्ज़ी बेचकर क्रांति कर रहा है. लेकिन ये लोग कहते हैं कि हम क्रांति कर रहे हैं.
इससे हुआ ये है कि लोग टीवी चैनल और उनकी ख़बरों को इतने हल्के से लेने लगे हैं कि वे दूसरे दिन अख़बार पढ़कर ही उस ख़बर की विश्वसनीयता और सत्यता की जाँच-परख करते हैं."
(http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2006/08/060805_tvmedia_attitude.shtml)
मैं आपकी भावना और एसे समय महसूस होने वाली बेबसी से सर्वथा सहानुभूती रखता हूँ। मीडिया को किन मुद्द्ों पर विचार करना चाहिए देखिए इसकी एक बानगी मेरे ब्लाॆग पर।
http://general-mishranurag.blogspot.com/2006/08/did-rakhi-kiss-mika-or-mika-kissed.html
आप सभी गुणीजनों का धन्यवाद। पीत पत्रकारिता के नित नये आयामों को छूती भारतीय पत्रकारिता अभी तक इस मुद्दे को यथोचित स्थान देने में असफल रही है। कहा गया कि फंसे हुए लोग चोर हैं। यह नही सोचा गया कि गरीबी के कारण यह चोरी हो रही थी, और इसमें किस हद तक लोग शामिल थे। थे तो सब गरीब ही।
media aajkal sabake nishane par hai...
kya BLOG isakaa ek accha vikalp nahee ho sakataa?
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